ईश्वर की बनाई इस दुनिया और उसके द्वारा बनाए गए जीवों के प्रति प्रेम करके हम आनंद प्राप्ति के रास्ते पर बढ़ सकते हैं। कबीर कह गए हैं कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढे़ वन माहि। हिरण के भीतर ही कस्तूरी होती है और उसे लगता है कि कस्तूरी की सुगंध बाहर से आ रही है और कस्तूरी की तलाश में वो इधर से उधर दौड़ता रहता है। ठीक ऐसे ही वास्तव में आनंद किसी वस्तु में नहीं, बल्कि हमारे भीतर ही होता है। व्यक्ति या तो अपने काम में खुशी ढूंढ़ता है या फिर रिश्तों या बाहरी चीजों में। किसी को नशे के बिना जीना नामुमकिन लगता है तो कोई नशे से नफरत करता है। इसका सीधा मतलब है कि तनाव रहित महसूस करने के लिए ही व्यक्ति नशा करता है। तनाव से मुक्ति किसी को संगीत से तो किसी को दूसरी चीजों से मिल सकती है। किसी को पैसे संग्रह करने का भी नशा हो सकता है। इस तरह आनंद पाने के लिए व्यक्ति तरह-तरह के प्रयोजन करता रहता है। दरअसल, व्यक्ति अपने आप से दूर भागता रहता है। वह अपने सच को जानना ही नहीं चाहता है। स्थूल वस्तुओं से मिलने वाले आनंद को ही वह वास्तविक मान लेता है, जबकि यह अस्थायी होता है। यह आनंद नहीं, बल्कि आनंद का भ्रम है। सुख-दुःख का संबंध मन और शरीर से होता है और आनंद का संबंध अंतरात्मा से होता है। आनंद हासिल करने के लिए हमें खुद से प्रेम करना और दूसरों में प्रेम बाँटना होगा। दूसरों की सेवा, सबके प्रति स्नेह, दया, सहानुभूति, परोपकार की भावना रखनी होगी। जब तक हम सही अर्थों में मानव नहीं बन जाते, तब तक आनंद की प्राप्ति संभव नहीं है। वाकई हम सही मायनों में इंसान बन जाएँ तो जीवन में विपरीत परिस्थितियाँ आएँगी ही नहीं। हम कभी एकांत में शांतचित्त बैठकर चिंतन और मनन करें तो जीवन का लक्ष्य स्पष्ट रूप से सामने दिखाई देगा। आखिर हम इस संसार में क्यों आए हैं इसके बाद हम कहाँ जाएँगे हमे इस संसार में किसने भेजा है। ऐसे कई सवालों के जवाब हमे मिल जाएंगे। ईश्वर के प्रति समर्पण भाव रखना ही सच्ची मानवता है। और ऐसा करके ही आनंद प्राप्त कर सकते हैं।
जनरली हम जो भौतिक जीवन जी रहे हैं वो जीना नहीं है जीवन जीना तो एक कला है और इसके लिए ईश्वर ने हमें बुद्धि और विवेक दिया है। इनका इस्तेमाल कर सजग और सतर्क रहने वाला इंसान ही मुक्तिपथ पर आगे बढ़ सकता है। यह जीव ब्रह्म का अंश है इस दुनिया में आकर वो अपने अस्तित्व को भूल गया है। महाराज श्री इंसान को उसके अस्तित्व का ज्ञान कराने में सहायता करते है। महाराज श्री की कृपा से जब वो इस ज्ञान को जान जाता है तो उस समय जो आनंद प्राप्त होता है वही परमानंद है। परमानंद वह अवस्था है जिसमें इंसान अपनी सुध बुध खो देता है और केवल प्रभु और अपने आप में संबंध स्थापित कर लेता है। वह भूल जाता है कि हमारे आगे पीछे सामने हमारी दुनिया में और कोई भी है। हमें तो होश तब आता है जब कोई हमें इस अवस्था से जगाता है। तब हमें महसूस होता है कि हम ईश्वर की दुनिया में ना होकर सांसारिक दुनिया में जी रहे हैं। वास्तव में यह अवस्था एक अनंत आनंद को देने वाली होती है। ऐसा आनंद जो कभी समाप्त नहीं होता बल्कि निरंतर बढ़ता ही जाता है। आनंद के स्रोत को पहचानना ही अध्यात्म का चरम है। इस स्थिति में भूख, प्यास, नींद, मान-अपमान, यश-अपयश और पाप-पुण्य आदि की चिंताएँ खत्म हो जाती हैं। चारों तरफ आनंद ही आनंद होता है।
महाराज श्री की कृपा से जब वो इस ज्ञान को जान जाता है तो उस समय जो आनंद प्राप्त होता है वही परमानंद है। परमानंद वह अवस्था है जिसमें इंसान अपनी सुध बुध खो देता है और केवल प्रभु और अपने आप में संबंध स्थापित कर लेता है । वह भूल जाता है कि हमारे आगे पीछे सामने हमारी दुनिया में और कोई भी है। हमें तो होश तब आता है जब कोई हमें इस अवस्था से जगाता है तब हमें महसूस होता है कि हम ईश्वर की दुनिया में ना होकर सांसारिक दुनिया में जी रहे हैं वास्तव में यह अवस्था एक अनंत आनंद को देने वाली होती है ऐसा आनंद जो कभी समाप्त नहीं होता बल्कि निरंतर बढ़ता ही जाता है।आनंद के स्रोत को पहचानना ही अध्यात्म का चरम है। इस स्थिति में भूख, प्यास, नींद, मान-अपमान, यश-अपयश और पाप-पुण्य आदि की चिंताएँ खत्म हो जाती हैं। चारों तरफ आनंद ही आनंद होता है।